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विभिन्न रामायण एवं गीता >> गीता माता

गीता माता

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :320
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6950
आईएसबीएन :9788128812446

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गीता हमारी सद्गुरु रुप है, माता रूप है और हमें विश्वास रखना चाहिए कि उसकी गोद में सिर रखकर हम सही-सलामत पार हो जायेंगे....

Gita Mata - A Hindi Book - by Mohandas Karamchand Gandhi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गांधी जी के अनुसार मानव जीवन ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय है और गीता इनसे संबंधित सभी समस्याओं का समाधान है। स्वाध्याय पूर्वक गीता का किया गया अध्ययन जीवन के गूढ़ रहस्य को उजागर करता है। गांधी जी ने गीता को शास्त्रों का दोहन माना। उन्होंने ‘गीता माता’ में श्लोकों की शब्दों के सरल अर्थ देते हुए टीका की है। गांधी जी का विश्वास था कि जो मनुष्य गीता का भक्त होता है, उसे कबी निराशा नहीं घेरती, वह हमेशा आनंद में रहता है।
भारत की धरती ने एक ऐसा महान मानव पैदा किया जिसने न केवल भारत की राजनीति का नक्शा बदल दिया अपितु विश्व को सत्य अहिंसा, शांति और प्रेम की उस अजेय शक्ति के दर्शन कराए जिसके लिए ईसा या गौतम बुद्ध का स्मरण किया जाता है। गाँधी जी का धर्म समूची मानव-जाती के लिए कल्याणकारी था। उन्होंने स्वयं को दरिद्र नारायण का प्रतिनिधि माना। गांधी जी का विश्वास था कि भारत का उत्थान गाँवों की उन्नति से ही होगा। उनके लिए सत्य से बढ़कर कोई धर्म और अहिंसा से बढ़कर कोई कर्त्तव्य नहीं था। गांधी जी संसार की अमर विभूति।

 

गीता-माता

गीता शास्त्रों का दोहन है। मैंने कहीं पढ़ा था कि सारे उपनिषदों का निचोड़ उसके सात सौ श्लोंकों में आ जाता है। इसलिए मैने निश्चय किया कि कुछ न हो सके तो भी गीता का ज्ञान प्राप्त कर लें। आज गीता मेरे लिए केवल बाइबिल नहीं है, केवल कुरान नहीं है, मेरे लिए वह माता हो गई है। मुझे जन्म देनेवाली माता तो चली गई, पर संकट के समय गीता-माता के पास जाना मैं सीख गया हूँ। मैने देखा है, जो कोई इस माता की शरण जाता है, उसे ज्ञानामृत से वह तृप्त करती है।
कुछ लोग कहते हैं कि गीता तो महागूढ़-ग्रंथ है। स्व० लोकमान्य तिलक ने अनेक ग्रंथों का मनन करके पंडित की दृष्टि से उसका अभ्यास किया और उसके गूढ़ अर्थों को वह प्रकाश मे लाए। उस पर एक महाभाष्य की रचना भी की। तिलक महाराज के लिए यह गूढ़ ग्रंथ था; पर हमारे जैसे साधारण मनुष्य के लिए यह गूढ़ नहीं है। सारी गीता का वाचन आपको कठिन मालूम हो तो आप केवल पहले तीन अध्याय पढ़ ले। गीता का सार इन तीनों अध्यायों में आ जाता है। बाकी के अध्यायों में वहीं बात अधिक विस्तार से और अनेक दृष्टियों से सिद्ध की गई है। यह भी किसी को कठिन मालूम हो, तो इन तीन अध्यायों में से कुछ श्लोंक छाँटे जा सकते हैं, जिनमें गीता का निचोड़ आ जाता है तीन जगहों पर तो गीता में यह भी आता है कि सब धर्मों को छोड़कर तू केवल मेरी शरण ले। इससे अधिक सरल और सागा उपदेश औऱ क्या हो सकता है ? जो मनुष्य गीता में से अपने लिए आश्वासन प्राप्त करना चाहे तो उसे उसमें से वह पूरा-पूरा मिल जाता है, जो मनुष्य गीता का भक्त होता है, उसके लिए निराश की कोई जगह नहीं है, वह हमेशा आनंद में रहता है।

 

प्रास्तविक

गीता महाभारत का एक नन्हा-सा विभाग है। महाभारत ऐतिहासिक ग्रंथ माना जाता है, पर हमारे मत से महाभारत और रामायण ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि धर्मग्रंथ हैं; या उसे ऐतिहासिक ही कहना चाहें तो वह आत्मा का इतिहास है और वह हजारों वर्ष पहले क्या हुआ, यह नहीं बताता, बल्कि प्रत्येक मनुष्य-देह में क्या ज़ारी है, इसकी वह एक तस्वीर है। महाभारत और रामायण दोनों में देव और असुर के-राम और रावण के-बीच नित्य चलनेवाली लड़ाई का वर्णन है। ऐसे वर्णन में गीता कृष्ण-अर्जुन के बीच का संवाद है। उस संवाद का वर्णन अंध धृतराष्ट्र से संजय करता है। गीता के मानी हैं गाई गई। इसमें ‘उपनिषद्र’ अध्याहार है। अतः पूरा अर्थ हुआ, गाया गया उपनिषद्। उपनिषद् अर्थात, ज्ञान-बोध, यानी गीता का अर्थ हुआ श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया हुआ बोध। हमें यह समझकर गीता पढ़नी चाहिए कि हमारी देह में अंतर्यामी श्रीकृष्ण भगवान् आज विराजमान हैं और अब जिज्ञासु अर्जुनरूप होकर धर्म-संकट में अंतर्यामी भगवान् से पूछेगा, उसकी शरण लेगा तो उस समय वह हमें शरण देने को तैयार मिलेंगें।

 हम भी सोए हैं, अंतर्यामी तो सदा जागृत हैं। वह बैठा राह देखता है कि हममें कब जिज्ञासा उत्पन्न हो; पर हमें सवाल ही पूछना नहीं आता सवाल पूछने की मन में भी नहीं उठती। इस कारण हम गीता-सरीखी पुस्तक का नित्य ध्यान धरते हैं, सवाल पूछना सीखना चाहते हैं और जब-जब मुसीबत में पड़ते हैं तब-तब अपनी मुसीबत दूर करने के लिए गीता की शरण में जाते हैं, और उससे आश्वासन लेते हैं। इसी दृष्टि से गीता पढ़नी है। वह हमारी सदगुरुरूप हैं, मातारूप है और हमें विश्वास रखना चाहिए कि उसकी गोद में सिर रखकर हम सही-सलामत पार हो जाएँगे। गीता के द्वारा अपनी सारी धार्मिक गुत्थियाँ सुलझा लेंगें। इस भाँति नित्य गीता का मनन करनेवालों को उसमें से नित्य नए अर्थ मिलेंगे। ऐसी एक भी धर्म की उलझन नहीं है कि जिसे गीता न सुलझा सकती हो। हमारी अल्प श्रद्धा के कारण हमें उसका पढ़ना-समझना न आए तो वह दूसरी बात है, पर हम अपनी श्रद्धा नित्य-नित्य बढ़ाते जाने और अपने को सावधान रखने के लिए गीता का पारायण करते हैं। इस भाँति गीता का मनन करते हुए, जो कुछ अर्थ मुझे उसमें से मिला है और आज भी मिलता जाता है, उसका सार आश्रमवासियों की सहायता के लिए यहाँ दे रहा हूँ।

 

मो० क० गांधी

 

शुक्लकृष्णे गतीह्योते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्मनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।।

 

जगत् में ज्ञान और अज्ञान के दो परंपरा से चलते आए मार्ग माने गए हैं। ज्ञान-मार्ग से मनुष्य मोक्ष पाता है, अज्ञान-मार्ग से उसे पुनर्जन्म प्राप्त होता है।

 

(गीता 8/26)

 

गीता-बोध

पहला अध्याय

मंगलप्रभात
11-11-30

 

पांडवों और कौरवों के अपनी सेनासहित युद्ध के मैदान कुरुक्षेत्र में एकत्र होने पर दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जाकर दोनों दलों के मुख्य-मुख्य योद्धाओं के बारे में चर्चा करता है। युद्ध की तैयारी होने पर दोनों ओर से शंख बजते हैं और अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण भगवान् उसका रथ दोनों सेनाओं के बीच में लाकर खड़ा करते हैं। अर्जुन घबराता है और श्रीकृष्ण से कहता है कि मै इन लोगों से कैसे लड़ूँ ? दूसरे हों तो मैं तुरंत भिड़ सकता हूँ लेकिन ये तो अपने स्वजन ठहरे। सब चचेरे भाई-बंधु हैं। हम एक साथ पले हैं। कौरव और पांडव कोई दो नहीं हैं। द्रोण केवल कौरवों के ही, आचार्य नहीं है, हमें भी उन्होंने सब विद्याएँ सिखाई हैं। भीष्म तो हम सभी के पुरखा हैं। उनके साथ लड़ाई कैसी ? माना कि कौरव आततायी हैं, उन्होंने बहुत दुष्ट कर्म किए हैं, अन्याय किए हैं, पांडवों की जगह-जायदाद छीन ली है, द्रौपदी जैसी महासती का अपमान किया है। यह सब उनके दोष अवश्य हैं, पर मैं उन्हें मारकर कहाँ रहूँगा ? ये तो मूढ़ है, मै इन जैसा कैसे बनूँ ? मुझे तो कुछ समझ हैं, सारासार का विवेक है। मुझे यह जानना चाहिए कि अपनों के साथ लड़ने में पाप है। चाहे उन्होंने हमारा हिस्सा हज़म कर लिया हो, चाहे वे मार ही डालें, तब भी हम उनपर हाथ कैसे उठावें ? हे कृष्ण ? मैं तो इन सगे-संबंधियों से नहीं लडूँगा।

इतना कहते-कहते अर्जुन की आँखों के सामने अँधेरा छा गया और वह अपने रथ में गिर पड़ा।
यह पहले अध्याय का प्रसंग है। इसका नाम ‘अर्जुन-विषाद-योग’ है। विषाद के मानी दुख के होते हैं। जैसा दुख अर्जुन को हुआ, वैसा हम सबकों होना चाहिए। धर्म-वेदना तथा धर्म-जिज्ञासा के बिना ज्ञान नहीं मिलता। जिसके मन में अच्छे और बुरे का भेद जानने की इच्छा तक नहीं होती, उसके सामने धर्म-चर्चा कैसी ? कुरुक्षेत्र युद्ध तो निमित्तमात्र है, सच्चा कुरुक्षेत्र हमारा शरीर है। यही कुरुक्षेत्र है और धर्म-क्षेत्र भी। यदि इसे हम ईश्वर का निवास-स्थान समझे और बनावें तो यह धर्म-क्षेत्र हैं। इस क्षेत्र में कुछ-न-कुछ लड़ाई तो नित्य चलती ही रहती है और ऐसी अधिकांश लड़ाइयाँ ‘मेरा’-‘तेरा’ को लेकर होती हैं। अपने-पराएँ के भेदभाव से पैदा होती हैं। इसीलए आगे चलकर भगवान् अर्जुन से कहेंगे कि ‘राग’, ‘द्वेष सारे अधर्म की जड़ हैं। जिसे ‘अपना’ माना उसमें राग पैदा हुआ, जिसे पराया जाना, उसमें द्वेष-वैराभाव-आ गया। इसलिए ‘मेरे’-‘तेरे’ का भेद भूलना चाहिए, या यों कहिए कि राग-द्वेष को तजना चाहिए। गीता और सभी धर्म-ग्रंथ पुकार-पुकार कर यही कहते हैं। पर कहना एक बात है और उसके अनुसार करना दूसरी बात। हमें गीता इसके अनुसार करने की भी शिक्षा देती है। कैसे, सो आगे समझने की कोशिश की जाएगी।

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